प्रायश्चित
दो अश्क बहे जब आँखों से
हुआ प्रायश्चित कुंठित मन का,
धुल गए विषाद-पाप सब
और हुआ दिल भी चंगा।
क्यों ने समझ पाया था अब तक
हए ! खुद की जीवन वीणा,
कितने संगीत बना सकता था
सुरमय करते ओरों का भी जीणा।
उलझा रहा उलझे हुए धागों में
था भेद सिर्फ अपने तन का,
जब ज्ञात हुआ हूँ विजन मरुशथल
टटोलता रहा संचित जीवन का।
अंतर्मन ने आवाज लगायी
क्या है तेरा संचित जीवन का,
दोड़ता रहा इधर-उधर
और भूल गया क्षितिज अपना।
दो अश्क बहे जब आँखों से
हुआ प्रायश्चित कुंठित मन का।
- ख़ामोश
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