कहाँ गयी मेरी वो सोंच
कहाँ गयी मेरी वो सोंच
था जिसमे जीवन का जोश,
अनंत समंदर की गेहराई
और आसमां-सा जिसका छोर।
कभी प्रेम स्वरों में सिमटी
कभी अश्रुमाला में बिंधी,
कभी रश्मि की आभा में रंगी
कभी मीठी बयार की संगी।
कभी मधुर संगीत में बस्ती
कभी मीठे दर्द को चखती,
कभी आह पलकों में ढकती
कभी पागल हो खुद पे हंसती।
- ख़ामोश
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